कृषि संकट- बिहार में कृषि उत्पादकता आज भी निम्न स्तर की है। बिहार की कृषि से 77 प्रतिषत लोग जुड़े हैं और वे राज्य के सकल घरेलू उत्पाद में 38 प्रतिषत का योगदान करते है।
बिहार में बटाइदारी व्यवस्था अवैध है लेकिन मुख्य रूप से इसी आधार पर खेती होती है। बटाइदारों का वैधानिक आधार नहीं होने से उन्हें सरकारी सुविधाओं एवं संस्थागत ऋणों से बंचित होना पड़ता है अतः कृषि क्षेत्र में निवेष नहीं होता है। बिहार में जमीन मालिकाना का औसत रकबा मात्र 0.7 हेक्टेयऱ है।
इस सरकार के अन्तर्गत सरकारी खरीद बहुत कम हो गई है इसलिये किसानों को औने-पौने कीमत पर अपना कृषि उत्पाद बेचने पर मजबूर होते हैं। बिहार में कृषि बाजार समितियों को बन्द करने से भी किसानों की बाजार तक पहुँच कमजोर हुई है।
क्या पिछले 15 वर्षों में कृषि से जुड़े इन महत्वपूर्ण मामलों से निबटने में क्या बिहार सरकार सफल रही ? उत्तर है नहीं।
आज कृषि घाटे का सौदा बनकर रह गया है इसीलिये बड़ी संख्या में ग्रामीण युवा पलायन कर घोर अमानवीय संकट को झेलते हुए, कठिन श्रम के जरिये पैसे इकट्ठे कर बिहार की ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बड़ा योगदान करते हैं।
बिहार में मुख्य रूप से चावल, गेहूँ, मक्का, चना, लाल चना, ईख, आलू तथा विभिन्न तरह की सब्जियाँ और फल का पैदावार होता है।
बिहार की कृषि उत्पादकता पंजाब की तुलना में 20 से 25 प्रतिषत कम है, जबकि हमारे पास पंजाब से ज्यादा उपजाउ जमीन एवं जल की प्रचूरता है बिहार में प्रति व्यक्ति खाद्य उपलब्धता राष्ट्रीय औसत 583 ग्राम प्रतिदिन की तुलना में मात्र 322.54 ग्राम प्रति व्यक्ति है।
पूर्वी क्षेत्र के अन्य राज्य की तुलना में बिहार में आम, लीची, केला आदि का औसत उत्पादन ज्यादा है उसी तरह सब्जी का उत्पादन बहुत ज्यादा है, लेकिन इसके प्रषंस्करण की एवं विपणन की व्यवस्था नहीं होने के चलते करीब 40 प्रतिषत उत्पाद नष्ट हो जाता है।
बिहार का आधा ग्रामीण इलाका ही पहुँच पथों से जुड़ा हुआ है जिससे किसानों को अपना उत्पाद बाजार तक पहुँचाने में बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
बाढ़, जल जमाव, नहरों की दुरावस्था तथा सतह पर सिंचाई व्यवस्था को बढ़ाने के लिये निवेष का अभाव जोतवाली जमीन का 30 प्रतिषत ही सिंचित है।
ग्रामीण इलाकों में मात्र 5 प्रतिषत परिवारों के पास बिजली कनेक्षन है जबकि राष्ट्रीय औसत 44 प्रतिषत है।
बिहार में पिछले 15 वर्षों में कोई औद्योगीकरण नहीं हुआ बल्कि पहले से चल रहे उद्योग बंद हुए। इसमें चीनी मिलें, फतुहा, पाटलीपुत्र, हाजीपुर सहित जिलों कें औद्योगिक परिसर शामिल है। पारंपरिक उद्योगों के नष्ट होने से बड़ी संख्या में बुनकरों और अन्य हस्त षिल्पियों का भी पलायन हुआ।
आम, लीची, शहद, मखाना, केला आदि के उत्पादन के बाद भी इनके प्रसंस्करण उद्योग का विकास नहीं हुआ। इन उद्योगों के लगाने से भी बेरोजगारों को कार्य मिल सकता था।